कालिका पुराण अध्याय ३२ – Kalika Puran Adhyay 32

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कालिका पुराण अध्याय ३२ में श्री वाराह यज्ञोत्पत्ति वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३२      

ऋषियों ने कहा- यज्ञ वाराह का देह यज्ञत्व को कैसे प्राप्त हुआ था और वाराह के तीन पुत्र त्रेतात्व कैसे प्राप्त हुए थे ? यह अकालिक प्रलय भगवान ने कैसे किया था और महात्मा वाराह ने महान घोर जनों का क्षय कैसे किया था । किस प्रकार से भगवान शार्ङ्गधारी से मत्स्य के स्वरूप के द्वारा वेदों का त्राण किया था अर्थात् वेदों की सुरक्षा करके उनको सुरक्षित रखा था ? फिर दुबारा यह सृष्टि की रचना कैसे हुई थी और इस भूमि को किसने समुद्धृत किया था ? वह देह कैसे प्रवृत्त हुआ था, यह सब हे महामते ! हमको बतलाइए । हे द्विज शार्दूल! इस सबका हाल आपने प्रत्यक्ष रूप से देखा । हे महती मतिवाले ! आज हम सब इसके श्रवण करने वाले हो रहे हैं। अतएव हमको आप बतलाने की कृपा कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विज शार्दूलों ! जो मैंने यहाँ पर एक अद्भुत सृजन किया था उसको सुनिए। आप सब परम सावधान हो जाइए और इस समस्त वेदों के फल को प्रदान करने वाले को सुनिए ।

यज्ञों में देवगण सन्तुष्ट होते हैं और यज्ञ में सभी कुछ प्रतिष्ठित है। यज्ञ के द्वारा ही पृथ्वी धारण की जाती है और यज्ञ से ही प्रजा का वरण किया करता है । अन्न के द्वारा प्राणी जीवित रहा करते हैं और उस अन्न की उत्पत्ति मेघों के द्वारा होती है । वे मेघ यज्ञों से हुआ करते हैं । इसलिए यह सभी कुछ यज्ञ से ही परिपूर्ण है । वह यज्ञ भगवान शम्भु के द्वारा विदीर्ण किए हुए वाराह के शरीर से ही हुआ था । हे द्विजो ! जैसा भी मैं आपको कहता हूँ उसको आप लोग परम सावधान होकर श्रवण कीजिए। मर्म के द्वारा वाराह के शरीर के विदारित होने पर उसी क्षण में समस्त प्रमथों के सहित ब्रह्मा, विष्णु और शिव देवगण ने जल से समुद्धृत करके उस शरीर को वे आकाश के प्रति ले गये थे। उसके भेदन करने वाले भगवान विष्णु के चक्र के द्वारा वह शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया गया था। उसके अंग की सन्धियाँ जो थीं वे यज्ञ पृथक् पृथक् समुत्पन्न हुए थे । हे महर्षियों! जिस अंग से जो समुत्पन्न हुए थे उनका सब आप लोग श्रवण कीजिए । भौंह और नासिका की सन्धि से महान अध्वर यज्ञ ज्योतिष्टोम नाम वाला उत्पन्न हुआ था । ठोड़ी, कान की सन्धि से वह्निष्टोम नामक यज्ञ समुद्भुत हुआ था । चक्षु और भौहों की सन्धि व ओष्ठों से पौनर्भवष्टोम व क्रत्यष्टोम यज्ञ समुत्पन्न हुआ ।

जिह्वा के मूल से वृद्धष्टोम और वृहतृष्टोम दो यज्ञ उत्पन्न हुए थे। नीचे जिह्वा के अन्तर्भाग से अतिरात्र और सर्वराज नाम वाले यज्ञों ने जन्म ग्रहण किया था। अध्यापन, ब्रह्म, यज्ञ, पितृ, यज्ञ, तर्पण, होम, दैव, बलि, मौत, नृयज्ञ, अतिथि पूजन स्नान और तर्पण पर्यन्त नित्य यज्ञ सर्वकण्ठ सन्धि से समुत्पन्न हुए थे तथा समस्त विधियाँ जिह्वा से उत्पन्न हुई थीं। वाजिमेध, महामेध तथा नरमेध ये तथा जो अन्य हिंसा के करने वाले यज्ञ हैं वे सब पादों की सन्धि से समुत्पन्न हुए थे । राजसूय यज्ञ अर्थकारी तथा वाजपेय यज्ञ पृष्ठ की सन्धि से समुद्भूत हुए थे और उसी भाँति जो ग्रहण यज्ञ थे वे भी समुत्पन्न हुए थे । प्रतिष्ठा सर्ग यज्ञ तथा दान श्रद्धा आदि यज्ञ हृदय की सन्धि से पैदा हुए थे इसी तरह से सावित्री यज्ञ भी उत्पन्न हुआ था । समस्त सांसारिक अर्थात् संस्कार करने वाले अथवा संस्कारों से सम्बन्ध रखने वाले यज्ञ और जो यज्ञ प्रायश्चित करने वाले हैं । (पापों की शुद्धि के लिए जो भी व्रत, दान, होमादि किए जाते हैं वे प्रायश्चित कहे जाते हैं ।) ये सब मेढ्र की सन्धि से उत्पन्न हुए थे ।

रक्ष सत्र अर्थात् राक्षस यज्ञ, सर्प सत्र और सभी जो भी अभिचारिक यज्ञ हैं अर्थात् अन्य प्राणियों के मारणात्मक हैं वह सभी उनके खुरों से हुए थे । माया सृष्टि, परमेष्टिग्रीष्यति, भोग सम्भव तथा अग्निष्टोम यज्ञ गूल की सन्धि में समुद्भूत हुए थे। जो नैमित्तिक यज्ञ हैं जिनको कि संकालि आदि पर्वों पर कीर्त्तित किया गया है वे और द्वादश वार्षिक सभी लांगुल सन्धि में समुत्पन्न हुए हैं । तीर्थ, प्रयोग, साम, संकर्षण यज्ञ, आर्क, आकर्षण यज्ञ ये समस्त नाड़ियों की सन्धि से उत्पन्न हुए थे । ऋचोत्कर्ष, क्षेत्रयज्ञ, ये सब जानु में समुत्पन्न हुए थे । हे द्विजसत्तमो ! इस रीति के एक सहस्त्र आठ यज्ञ समुद्भुत थे । निरन्तर यज्ञों के लोक जिनके द्वारा इस समय में भी विभावित किए जाते हैं, उत्पन्न हुए थे । इसके पौत्र से स्रुक् उत्पन्न हुई थी और नासिका से स्रुक् हुआ था । अन्य जो भी स्रुक् और स्रुव के भेद अभेद हैं वे पौत्र और नासिका से समुद्भुत हुए थे ।

हे मुनिसत्तमो ! उसके ग्रीवा के भाग से प्राग्वंश समुद्भूत हुआ था । इष्टा पूर्ति, जय धर्म्म श्रवण के छिद्र से उत्पन्न हुए थे । दाढ़ों से यूप, कुशा और रोम समुत्पन्न हुए थे । उद्गाता, अध्वर्यु, होता और शामित्र ने जन्म ग्रहण किया था। ये अग्र, दक्षिण, वाम अंग, प्रचात् पादों में संगत हैं । पुरोडाश चरु के सहित मस्तिष्क के सञ्चव से समुद्गत हुए थे । खुर से यज्ञ केतु ने जन्म ग्रहण किया था । रेतोभाग से आज्य और स्वधा मन्त्र समुद्गत हुए थे। यज्ञ का आलय पृष्ठभाग से और हृदय कमल से यज्ञ समुत्पन्न हुआ था । उसकी आत्मा यज्ञ पुरुष है उनकी भुजायें कक्ष से समूद्भुत हुई थीं । इसी प्रकार से जितने भी यज्ञों के भाण्ड हैं और हवियाँ हैं वे सभी यज्ञ वाराह के शरीर से हुए थे । इस रीति से उन यज्ञ वाराह का शरीर यज्ञता को प्राप्त था ।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ने इस प्रकार से यज्ञ को करके वे फिर यत्नों में तत्पर हुए सुवृत्त, कनक और घोर के समीप में प्राप्त हुए थे । इसके अनन्तर उनके शरीरों को पिण्ड बनाकर पृथक्-पृथक् तीनों देवों ने तीन शरीरों को मुख की वायु से अर्थात् फूँक लगाकर विशेष रूप से धमन किया था। स्वयं ही जगत के सृजन करने वाले फिर दक्षिणाग्नि हो गए थे। भगवान केशव ने कनक के शरीर का धारण किया था। फिर पञ्च वैतान के भोजन करने वाला गार्हपत्याग्नि हुआ था । फिर वाह्ववानीय अग्नि उसी क्षण में समुद्भूत हो गया था ।

इन तीनों से सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया था और वह समस्त जगत् तीन मूलों वाला है। हे द्विज श्रेष्ठों ! जहाँ पर ये तीनों नित्य ही स्थित रहते हैं वहाँ पर समस्त देवगण अपने अनुचरों के साथ निवास किया करते हैं । यह तीनों का स्वरूप नित्य ही कल्याण का स्थान है और यही तीनों का स्वरूप है । यह त्रयी की विधि का स्थान हैं और यह परम पुण्य का करने वाला है। जिस जनपद में ये तीनों वह्नियों का हवन किया जाता है उस जनपद में नित्य ही चतुर्वर्ग विद्यमान रहा करता है । चारों वर्ग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। हे द्विज श्रेष्ठो! जो मुझसे आपने पूछा है वह मैंने सब ही आपको बतला दिया है। जिस प्रकार से यज्ञ वाराह का देह यज्ञत्व को प्राप्त हुआ था और जिस तरह से उनके पुत्रों के देह से वह्नियाँ हुई थी ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३२ ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय 33 

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